
और आज बरस गयी बदरी....
हाँ .....ज़रुरत भी तो थी
कितनी तप गयी थी हकीकत की ज़मीन
कि अरमानों की हरी कोपलें ,
जल कर ... बदरंग पीली पड गयी थीं
हसरतों के पंछी खुश्की के मारे ,
एक एक कर दम तोड़ रहे थे सारे
बिजली भी तो चली गयी थी उम्मीद की
बाहर निकलो तो धूप थी अंजानो की
अन्दर रहो तो झुलसी सी तन्हाई थी
नया पानी जड़ों को छू तो चुका होगा अब
शायद अब फिर से नयी कोपलें आ जाएँ
और जब घनी हो जाये यह शाख ,
शायद नए पंछी भी कहीं से आ जाएँ
हाँ ..यही तो हुआ था पिछली दफा
हाँ ... यही तो कहानी कभी दोहराई थी
क्या इस दफा बदलेगा तकदीर -ऐ-"अहसास"
ता-उम्र की होगी क्या इस दफा बरसात???
Kya baat hai sir... maza aa gaya!!!
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